सत्ता के ख़िलाफ़ खड़ा होना हमारा हक़ भी है और मजबूरी भी- योगेंद्र यादव - Unreported India
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सत्ता के ख़िलाफ़ खड़ा होना हमारा हक़ भी है और मजबूरी भी- योगेंद्र यादव

बातचीत के दौरान की तस्वीर

किसान आंदोलन के सौ दिन पूरे हो गए हैं. इस बीच आंदोलन में कई बदलाव हुए. महापंचायतों को दौर शुरू हुआ और अब किसान आंदोलन चुनावी राज्यों की तरफ़ जा रहा है. इन तमाम मुद्दों पर स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव से शशांक पाठक ने बातचीत की.

शशांक पाठक- किसान आंदोलन को सौ दिनों हो गए हैं. जिसे आंदोलन का शतक भी कहा जा रहा है. इन सौ दिनों को किस तरह देखें, आंदोलन की ताक़त या सरकार की अनदेखी के रूप में?

योगेंद्र यादव- आंदोलन कोई शतक बनाने के लिए नहीं होते. आंदोलन, अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए होते हैं और आंदोलन समाज का चरित्र के साथ देश की फ़िजा बदलने के लिए होते हैं. इस आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस ऐतिहासिक आंदोलन ने किसान को देश के मानस पटल पर दोबारा स्थापित कर दिया है कि किसान हैं, ये जाने वाले नहीं हैं. किसान इतिहास के कूड़ेदान पर नहीं बैठा. इस आंदोलन ने स्थापित किया है कि जिसे कल तक लोग पांव की जूती समझते थे वह छूल चटा सकता है. यह आंदोलन इन मायनों में ऐतिहासिक है कि इतने लोग इसमें शामिल हुए, तमाम असुविधाओं के बावजूद आंदोलन तीन महीने पूरा कर चुका है, पूरे देश में आंदोलन ने पैठ बनाई है.

जहां तक बात सरकार के नज़रअंदाज करने की है तो यह सरकारों का आंदोलन के प्रति एक आम नज़रिया होता है. जिस सरकार का प्रधानमंत्री संसद में आंदोलन का माखौल बनाए उस सरकार से क्या उम्मीद की जा सकती है. शायद ये नहीं जानते कि यह देश आंदोलन से ही पैदा हुआ है. देश को किसी राजा- महाराजा या एक व्यक्ति या किसी संघ संचालक ने नहीं बनाया है. मैं समझता हूं कि उस प्रधानमंत्री को यह आंदोलन सबक सिखा कर ही जाएगा.

शशांक पाठक- हाड़ कंपाने वाली ठंड के बीच किसान टिके रहे अब गर्मियों का मौसम शुरू हो रहा है. सरकार के अब तक के रुख को देखते हुए क्या लगता है, इस आंदोलन का नतीजा क्या निकलेगा?

योगेंद्र यादव- नतीजों को दो स्तर पर देखना चाहिए, एक मूर्त और दूसरा अमूर्त. दो-तीन नतीजे इस आंदोलन से निकल चुके हैं. किसान यह स्थापित कर चुके हैं कि वो इस देश में हैं. दूसरा इस देश के हर नेता को समझ आ गया है कि आगे से इस देश के किसानों से पंगा नहीं लेना है. मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि ये तीनों क़ानून मर चुके हैं. इस मायने में कि अब ना तो इस सरकार की और ना आने वाली किसी सरकार की इन क़ानूनों को दोबारा लागू करने की हिम्मत नहीं होगी. यह सच बात है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बहाने यह क़ानून रुके हुए हैं, लेकिन अब इन्हें लागू करने की हिम्मत नहीं होगी. प्रधानमंत्री ने इसे मूंछ का सवाल बना रखा है कि वह लिख कर देने को तैयार नहीं हैं.

इस आंदोलन की तीसरी बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने देश के किसानों को एक कर दिया है. पहले हिंदुस्तान का किसान हाथ ऊपर करता था तो पांचों उंगली अलग- अलग दिशा में जाती थीं, अब किसानों ने मुट्ठी बंद करना सीख लिया है. पंजाब और हरियाणा के किसानों को बीस साल तक तोड़ने की कोशिश हो रही थी लेकिन अब एक साथ हैं. सिक्ख और हिंदू किसान एक साथ हैं. कई रिपोर्ट्स तो मेरे पास ऐसी आ रही हैं कि गांवों के अंदर किसानों के बीच फ़ौजदारी के मामले कम हो गए हैं. यह तो उपलब्धियां हैं अब सवाल तीन क़ानूनों और एमएसपी का है. यह आंदोलन अपनी मांगों को पूरा किया बिना ख़त्म नहीं होगा और यह मांगें पूरी होंगी चाहे जितनी देर हो जाए.

पहले सरकार ने सोचा कि पंजाब और हरियाणा में ज़्यादा राजनीतिक नुक़सान नहीं है. लेकिन अब सरकार देख रही है कि उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में महापंचायतें हो रही हैं, सरकार के मंत्रियों को गांवों में घुसने नहीं दिया जा रहा और अब जब किसान अपना संदेश पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडू, केरल जैसे राज्यों में ले जा रहे हैं तो सरकार को इसकी राजनीतिक क़ीमत समझ आएगी और देर- सबेर सरकार को झुकना पड़ेगा. किसान इंतज़ार करने के लिए तैयार है.

शशांक पाठक- आप चुनावी राज्यों में किसान आंदोलन ले जाने के बात कर रहे हैं. राकेश टिकैत भी इस बात को दोहराते रहे हैं. शुरुआत में यह कहा जा रहा था कि किसान आंदोलन किसी भी तरह से राजनीति से प्रभावित नहीं है. तो क्या अब किसान आंदोलन अब खुद विपक्षी राजनीति के रूप में सरकार के ख़िलाफ़ खड़ा होगा और आंदोलन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक हो रहा है. ये सही है या ग़लत?

योगेंद्र यादव- एक मायने में किसान आंदोलन राजनीतिक नहीं था, नहीं है, नहीं रहेगा. दूसरे मायने में यह पहले दिन से राजनीतिक है और होना भी चाहिए. हम बंगाल, असम या जिस भी राज्य में जाएंगे वहां यह नहीं कहेंगे कि बीजेपी के ख़िलाफ़ आप किसको वोट दीजिए. संयुक्त किसान मोर्चा की तरफ़ से यह अपील बिल्कुल नहीं है कि आप किस पार्टी को वोट दीजिए. हम हर सत्ता के ख़िलाफ़ रहे हैं, ना हम चुनाव लड़ रहे हैं ना हमारा कोई प्रत्याशी है. चुनावी राजनीति का रोजमर्रा को जो गणित है हम उससे बाहर हैं और इस मायने में हम ग़ैर-राजनीतिक हैं.
लेकिन जो सत्ता में है उसके ख़िलाफ़ खड़ा होकर यह कहना कि इन्हें सजा दो, यह हमारा हक़ है और मजबूरी भी है. सौ दिन हो गए ना यह लोग संविधान की बात सुनते हैं, ना क़ानून की, ना यह लोग नैतिकता जानते हैं, ना अच्छा- बुरा. यह एक ही भाषा समझते हैं वोट, कुर्सी, सरकार. जब तक इनकी कुर्सी ना हिलाओ कोई फ़र्क नहीं पड़ता इनको, तब इनकी कुर्सी हिलाना तो किसान का धर्म है.

मैं तो कहता हूं कि किसान आंदोलन का यह धर्म होना चाहिए कि आने वाला चुनाव हिंदू- मुसलमान पर नहीं पाकिस्तान- चीन के मुद्दे पर नहीं बल्कि जवान और किसान के मुद्दे और सवालों पर होना चाहिए, फ़िर कोई भी जीते. यह जो राजनीति नहीं का मुहावरा बन गया है कि किसानों को राजनीति नहीं करनी चाहिए यही सबसे ख़तरनाक राजनीति है.

नेता कुर्सी पर बैठ कर किसानों का दमन करें और किसान यह भी ना कहे कि इनकी कुर्सी हिलाओ. क्यों नहीं कहेंगे और कहना चाहिए.

शशांक पाठक- दिल्ली की सीमाओं पर जो किसानों के मोर्चे हैं वहां किसानों की तादाद कम हो रही है. दूसरी तरफ़ किसान महापंचायतों में भारी भीड़ आ रही है. क्या रणनीति में कोई बदलाव है? क्या यह आंदोलन अब महापंचायतों की तरफ़ जा रहा है.

योगेंद्र यादव- किसी भी बड़े आंदोलन में अलग- अलग चरण होते हैं. पहला चरण था जब आंदोलन सिर्फ़ पंजाब में था तब दिल्ली का मीडिया देख ही नहीं रहा था. दूसरे चरण में आंदोलन दिल्ली आया तब सबने देखा. तीसरा चरण अपने आप शुरू हो गया. 26 जनवरी के बाद जब आंदोलन की हत्या करने की कोशिश हुई, ज़मीन पर गाड़ने की कोशिश हुई तब यह आंदोलन फैल गया. महापंचायतों का दौर अपने आप शुरू हुआ. टीकरी बॉर्डर के अलावा बाकी मोर्चों पर किसानों की तादाद कम हुई है. लेकिन फ़िर आपको अलग- अलग राज्यों में हो रही महापंचायतों को देखना होगा.

यह बात मैं विश्वास से कहता हूं कि 26 नवंबर से 26 जनवरी तक जितने किसानों ने दिल्ली की सीमाओं में आंदोलन में शामिल हुए उससे 10 गुना ज़्यादा लोग महापंचायतों के ज़रिए किसान आंदोलन से जुड़ रहे हैं. तो आंदोलन घटा या बढ़ा?
मैं समझता हूं कि आंदोलन का केंद्र दिल्ली के बाहर हो गया है. क्योंकि इस देश की मीडिया को दिल्ली के बाहर कुछ नज़र नहीं आता तो उनके लिए आंदोलन ख़त्म हो गया है लेकिन किसान तो दिल्ली के बाहर ही रहता है.

शशांक पाठक- उत्तर प्रदेश में सरदार वीएम सिंह ने कुछ संगठनों के साथ अलग तरह का आंदोलन शुरू किया है. टेलीविजन मीडिया राकेश टिकैत और वीएम सिंह के बयानों को आमने- सामने चलाता है. क्या किसान नेताओं में यह डर है कि आज कौन बड़ा किसान नेता बन रहा है?

योगेंद्र यादव- जब भी कोई ऐसा बड़ा आंदोलन होता है तो यह एक रिले रेस की तरह है. आज मैंने बैटन पकड़ा उसके बाद आपको थमा दिया. सच बात यह है कि जिस दिन आंदोलन की हत्या करने की कोशिश हो रही थी उस दिन राकेश टिकैत ने इसे संभाला, मैं उन्हें सलाम करता हूं. उस दिन अगर राकेश टिकैत खड़े नहीं होते तो पता नहीं क्या हो जाता. आज उनके हाथ में बैटन है तो खुश होना चाहिए. मैं यह नहीं देखता कि बैटन किसके हाथ में है, अगर वो दौड़ रहा है तो हमारी टीम ही जीत रही है.

शशांक पाठक- आंदोलन की मौजूदा रणनीति के हिसाब से क्या लगता है कृषि क़ानूनों की वापसी ज़्यादा बड़ा मुद्दा है या फ़िर फसलों की एमएसपी की गारंटी का क़ानून बनाने की मांग. किसानों के लिए पहले क्या होना चाहिए?

योगेंद्र यादव- दोनों मुद्दे केंद्रीय हैं, बड़े छोटे का मामला नहीं है. तीन क़ानूनों को रद्द करवाने के नारे के साथ लाखों किसान दिल्ली आए हैं, हम उससे पीछे कैसे हट सकते हैं, संशोधन पर कैसे मान सकते हैं. एमएसपी वो चीज है जो हमें लेनी है. किसान कह रहे हैं कि मोदी जी आप अपना गिफ्ट ( तीन कृषि क़ानून) वापस ले लो और हम जो मांग रहे हैं (एमएसपी गारंटी क़ानून) हमें दे दो. खाली हाथ नहीं जाएंगे और ना जाना चाहिए.

शशांक पाठक- अभी सरकार से कोई बातचीत नहीं हो रही है. कहा जाता है कि सरकार अड़ियल रुख अपना रही है. लेकिन किसान नेता भी नहीं मान रहे. तो हम यह क्यों ना कहें कि किसान नेता भी अड़ियल रूख अपना रहे हैं.

योगेंद्र यादव- पहली बात यह कि सरकार ने जब भी बातचीत के लिए बुलाया हमने एक बार भी इनकार नहीं किया. हम इस बात पर अडिग थे कि यह तीनों क़ानून नहीं चाहिए. सरकार ने संशोधन की बातच कही उसे हम कैसे मान जाते. जिस सिद्धांत के लिए हम आए तो उस पर टिका रहना ही था. सरकार आज भी दो कदम आगे बढ़े तो किसान भी दो कदम आगे बढ़ेंगे. लेकिन दिक़्क़त यह है कि सरकार ने जिस दिन वाकई बातचीत शुरू की उसी दिन उसे ख़त्म कर दी.

अगर सरकार बातचीत करती है तो हम भी बातचीत करनी है हम तो पहले दिन से कह रहे हैं कि जितनी जल्दी ये आंदोलन खत्म हो उतना सबके लिए अच्छा है. हम आंदोलन का शतक या दोहरा शतक बनाने के लिए नहीं आए हैं. हम तो शतक ( सौ दिन) भी नहीं बनाना चाहते थे.

योगेंद्र यादव के साथ ये बातचीत UnReported India के कार्यक्रम URI Dialogue के लिए वीडियो में रिकॉर्ड की गई थी जिसे देखने के लिए नीचे दी गई लिंक पर क्लिक कर सकते हैं.

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