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आवर्तन: एक फ़िल्म जो छूती है गुरू- शिष्य परंपरा के खूबसूरत पहलू

फ़िल्म आवर्तन से लिया गया स्टिल

आवर्तन फ़िल्म की यह समीझा UnReported India को डॉ कंचन भारद्वाज ने भेजी है. समीझा के तौर पर यह विचार उन्हीं के हैं.

‘आवर्तन‘ फिल्म अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव 51 ,गोवा में दिखाई गयी और बीती शाम ‘हैबिटैट सेंटर , दिल्ली’ में दिखायी गयी. ऑडिटोरियम एक साल बाद लय, ताल और घुंघरू की झंकार से झूम उठा. दो घंटे की फिल्म के बाद आठ मिनट का नृत्य कार्यक्रम दर्शकों के सर चढ़कर ऐसे बोल रहा था कि प्रश्नोत्तर सत्र में प्रश्नों की जगह सिर्फ़ वाह -वाही आ रही थी. पद्मश्री गुरू शोवना नारायण जी ने इस फिल्म पर अपना ऐसा रंग चढ़ाया कि एक दर्शक तो उसको बायोपिक ही समझ रहे थे. गुरू- शिष्य परम्परा को आधार बनाती यह फिल्म ह्रदयस्पर्श करने में कहीं नहीं चूकती. गुरू अपनी गोद में बैठाकर शिष्य को तैयार करता है. शिष्य की ऊँगली और हाथ पकड़कर उसको सिखाता है, तब जाकर उसका शिष्य निखरता है. फिल्म के आरम्भ में दो सीन आते हैं- एक, जिसमें सितारा देवी जी नृत्य कर रही हैं और ऐसा नाचती हैं कि नाचते- नाचते एक दिन उनके घूँघरू टूटकर बिखर जाते हैं. तब एक तबला बजाने वाले की छोटी सी बेटी खुश होकर एक घुंघरू उठा लेती है, लेकिन फिर जब वह लौटाने लगती है तब सितारा देवी जी उसको ख़ुशी से देती हैं. वह जो बच्चे की ख़ुशी थी घुंघरू उठाकर हाथ में रख लेने की, वही तो है कला का आनंद. कला का मूल्यांकन अख़बारी आलोचना से जोड़कर कम से कम कलाकार को तो नहीं देखना चाहिए. यह महत्वपूर्ण सीन है जो फिल्म के क्लाईमेक्स पर खुलता है.

दूसरा सीन है जिसमें रेगिस्तान में नाचती दो स्त्रियाँ. जिनका गुरू और शिष्य का सम्बंध है. दरअसल यह गुरू के स्वप्न का दृश्य है जिसमें शिष्या की एक नज़र ऐसी है जब गुरू को लगता है कि शिष्या गुरू को चुनौती दे रही है. गुरू को चक्कर आ जाता है और उनका स्वप्न टूटता है. एक असुरक्षा की भावना नकारात्मक स्वप्न के रूप में घर कर जाती है लेकिन मुट्ठी में बंद घूँघरू की ख़ुशी सकारात्मकता की ओर ले जाती है. संतुलन के साथ शुरू हुई फिल्म में कई भावनात्मक बिंदु आते हैं. शिष्या रेणुका तब बेहद दुखी हो जाती है जब कक्षा में गुरू अन्य सभी सहपाठियों का नाम लेती हैं और उसका नहीं लेतीं, तब जैसे उसका दिल उसकी आँखों के पानी में तड़पती मछली सा दिखाई देता है. गुरू भी तो तड़प रही हैं जान-ए-जिगर शागिर्द के बिना. आधी रात को उसको स्मृतियों में भीग जाती हैं बीच की उस पवित्र जलधारा में जहाँ दोनों मिल रही हों जैसे संगम में गंगा मिलती है.

गुरू के प्रति समर्पित शिष्या रेणुका अपनी कला में भी पारंगत है. शिष्या को कला में निपुण गुरू की मेहनत और प्रेम ने बनाया है. शिष्या भी गुरु से खूब प्रेम करती है, अपनी कला के प्रति पूरी तरह समर्पित है लेकिन एक चूक उससे हो जाती है. कला के लिए गुरू से भी आगे जाने लगती है. यहाँ तक कि गुरू की चोट का भी ध्यान नहीं रखती. यह चोट गुरू के मन पर पड़ती है. कला के आलोचक युवा प्रतिभा रेणुका का गुणगान करते हैं और गुरू का नाम भी नहीं लेते. तब गुरू को लगता है कि जैसे वह कोई ‘एंटिक पीस’ भर तो नहीं हैं. तब उनकी गुरू बा हाथ में वही ख़ुशी घूँघरू रख देती हैं जो सितारा देवी जी का है. सब कुछ देकर अपना आवर्तन पूरा करती हैं. यह आवर्तन पूरा करना ही गुरू-धर्म है …फिल्म का यही सन्देश लगता है. कत्थक-गुरू भावना भी अपनी शिष्या को सब कुछ सौंपकर अपना आवर्तन पूरा करती हैं. गुरू शिष्य परम्परा वाली भारतीय शिक्षा पद्धति विश्व-विख्यात है. ज्ञान वही जो प्रेम से उपजे… ढाई आखर प्रेम का पढ़ाई जो पंडित होय… शिष्य की श्रद्धा और गुरू का प्रेम,यही सत्य है. तभी पूरा होगा आवर्तन का चक्र पूरा.

फिल्म में शम्भू महाराज जी का प्रमिलू, और पुरानी शिव परन सुनने देखने को मिलती है. सुन्दर नृत्य और नृत्य की कक्षा देखने को मिलती है. कितने ही प्रोडक्शन गुरु शोवना नारायण ने बनाये हैं जिनमें कांसेप्ट और निर्देशन सब उनका ही रहता है. अली सरदार जाफरी, रूमी, काजी नज़रुल इस्लाम की कविता हो या द्रौपदी, यशोधरा, कुंती, शकुंतला जैसी स्त्रियाँ हों, वे उनके मनोभाव खूब निभाती हैं. अभिनय उनके लिए नया बिल्कुल नहीं है. जो लोग उनको ‘गुरू’ के रूप में जानते हैं उनके लिए मुश्किल हो जाता है ईर्ष्यालु गुरू भावना को स्वीकारना.

निर्देशक दूर्बा सहाय की यह पहली फीचर फ़िल्म है और बतौर फिल्म-अभिनेत्री यह पद्मश्री शोवना नारायण की भी पहली फिल्म है, लेकिन गुरू शोवना नारायण जी का वर्षों का कत्थक में अभिनय का अनुभव है और दूर्बा जी का भी थियेटर और साहित्य का अनुभव है. एक साक्षात्कार में दूर्बा बताती हैं कि यह संकल्पना तब उपजी थी जब उन्होंने हिंदी की पत्रिका ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव जी से प्रश्न किया था कि ‘जब लेखक आपसे आगे निकल जाते हैं तब आपको ईर्ष्या नहीं होती क्या?’…. गुरू के बड़प्पन और शिष्य के साथ उसके प्रेम और उसके पूरे व्यक्तित्व को संवारने की गुरू शिष्य परम्परा नई पीढ़ी को बताती है यह फिल्म. जब नर्तकी भावना अपनी शिष्या से ईर्ष्या के कारण उसको सिखाना बंद कर देती है तब उनकी गुरू बा उनको संभालती हैं. सच्चा गुरू ज्ञान देने के साथ उसे अच्छा मनुष्य भी बनाता है. ‘भीतर हाथ सहार दे बाहर मारे चोट’…

फिल्म में नये कलाकार भी हैं वे अपनी गुरू पद्मश्री शोवना नारायण जी से शिक्षा लेकर कत्थक में पारंगत हैं. सबका अभिनय बहुत शानदार है. प्रतिमा बनी कोमल आँखों में ही बहुत कुछ सम्प्रेषित करती हैं और रेणुका बनी मृणालिनी ने तो ऐसा काम किया है कि यह दिल मांगे मोर की तर्ज पर जल्दी ही किसी नई फिल्म में दिखना चाहिए. संवाद कुछ अन्य होते जो विद्यार्थियों की आपसी बातचीत से रेणुका की मनः स्थिति को थोड़ा और खोल देते. वैसे फोटोग्राफर बने रेणुका के प्रेमी ने कई कड़ियों को बहुत ही सहजता से जोड़ा है. सेक्रेटरी और बा के रूप में जो कलाकार सुषमा सेठ हैं उनके काम का प्रभाव देर तक मन पर रहेगा. संगीत का जादू पूरी फिल्म में बरक़रार रहता है लेकिन गुरू के रूप में पद्मश्री शोवना नारायण जी भावना के रूप में अप्रतिम हैं. उम्मीद है दूर्बा सहाय फीचर फ़िल्म में फिर कोई नया प्रयोग करेंगी.

लेखिका के बारे में-
डॉ कंचन भारद्वाज स्त्री साहित्य की अद्येता हैं. आपने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली से पीएचडी की है. कंचन भारद्वाज जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अध्यापक हैं साथ ही आप तबला वादिका भी हैं.

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